दौर
आज फिर उल्फतों के दौर से गुजरे हैं हम
जो ना करना चाहते थे, वो कर गुजरे हैं हम
हंसी भी आती है, दुख भी होता है खुद ही पर
पर ना जाने कौन सा जुल्म कर गुजरे हैं हम
एक नशा सा छाया रहता है, न जाने कैसी बेखुदी है
अपनो की ही भीड में, न जाने क्यों अनजाने से हैं हम
कहना भी चाहते हैं, पर कुछ भी कह नही पाते हैं हम
जैसे गुंगे आेर बहरे से बने रहना चाहते हैं हम।
चिन्टू