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अपनी एक पहचान बनाने तथा एक बेहतर इंसान बनने के लिए संघर्षरत....

Thursday, August 24, 2006

साहिर लुधियानवी

खून अपना हो या पराया हो
नस्ले आदम का खून है आखिर
जंग मगरिब में हो कि मशरिक में
अमने आलम का खून है आखिर

बम घरों पर गिरें कि सरहद पर
रूहें तामीर जख्म खाती है
खेत अपने जलें या आैरों के
जिसत फाकों से तिलमिलाती है

टैंक आगे बढें कि पीछे हटें
कोख धरती की बाझं होती है
फ़तह का जश्न हो कि हार का सोग
जिंदगी मय्यतों पे रोती है

इसलिए एे शरीफ इंसानों
जंग टलती रहे तो बेहतर है
आप आैर हम सभी के आंगन में
शमा जलती रहे तो बेहतर है।

चिन्टू