दौर
आज फिर उल्फतों के दौर से गुजरे हैं हम
जो ना करना चाहते थे, वो कर गुजरे हैं हम
हंसी भी आती है, दुख भी होता है खुद ही पर
पर ना जाने कौन सा जुल्म कर गुजरे हैं हम
एक नशा सा छाया रहता है, न जाने कैसी बेखुदी है
अपनो की ही भीड में, न जाने क्यों अनजाने से हैं हम
कहना भी चाहते हैं, पर कुछ भी कह नही पाते हैं हम
जैसे गुंगे आेर बहरे से बने रहना चाहते हैं हम।
चिन्टू
7 Comments:
चिन्टू जी, आप कहते कहते रूक क्यों गयें। आप कहते है तो काफी अच्छा लगता है। आशा है कि आप मेरी आवाज सुन रहे है और फिर लिखेगें। आप टिप्पणी के लिये नही अपनी अभ्रिव्यक्ति को व्यक्त करने के लिये लिखिये। शुभकामना सहित प्रमेन्द्र
धन्यवाद
भाई प्रमेन्द्र जी, हकीकत तो यह हॆ कि एक तो समय ही नही मिल पाया ओर फिर दुसरा हमारे कम्पयुटर की तकनीकी खराबी के कारण भी हम लिख नही पाए. बस अपने मन की तस्सली के लिए लिख लेता हू. चाहे इसे आप अभ्रिव्यक्ति कहे या टिप्पणी.
चिन्टू
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अरे भाई चिन्टू तूम्हारा लिखा पढा | पढ कर मज़ा आया |लिखते रहिएगा |
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आप भी भाई,
धन्यवाद तजिन्दर
कोशिश कर रहा हूं लिखने कि बस
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