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अपनी एक पहचान बनाने तथा एक बेहतर इंसान बनने के लिए संघर्षरत....

Wednesday, February 18, 2009

आज फिर


बौर हो रहा था लैब में, फिर सोचा की चलो आपना ब्लॉग ही पढ़ लिया जाय। इस बहाने कुछ टाइम भी पास हो जायगा और कुछ लिखा भी जाय तो बेहतर होगा।

पिक्चर मेरे स्कूल कि है जिसमें मैं शोध करने आया हूँ। यह होबोकें, न्यू जर्सी में है। पीछे न्यूयार्क सिटी और हडसन नदी दिखाई दे रही है।

शुकर है कि अब अमेरिका में तो आ गए है बस अब महेनत से और मन लगाकर काम करना है। आकर यहाँ लगा कि क्यों इंडिया से यहाँ आया हूँ। वहां सब कितना अच्छा था, क्योंकि बकर-बकर करने कि आदत जो है, डिपार्टमेन्ट में लोगो को छेड़ कर चेलने में बहुत ही मज़ा आता था। यहाँ तो कोई बात करने के लिए भी नही मिलता है। एक बात अच्छी हुई कि आते ही दीपक के घर रहने को मिल गया तो दो-तीन दिन कोई परेशानी नही हुई। दीपक मेरा पुराना स्कूल का दोस्त है इंडिया से। बहार स्नो गिर रही थी, पहली बार स्नो फाळ देखने को मिला और वो भी अमेरिका में, बडा मज़ा आया और बहुत अच्छा भी लगा।

बस दो दिन रुकने के बाद (स्नो की वज़ह से) स्कूल पहुँच गया अपने प्रोफ़ेसर को रिपोर्ट करने। दीपक ईस्ट-विंडसर में रहता है वहां से स्कूल बहुत दूर है। डेली आने-जाने के २१ डोलर लगते है और अलग से दीपक को प्रिन्सटन जंक्शन स्टेशन पर छोड़ने व लेने आना पड़ता था। उसकी भी जॉब है तो उसको ज्यादा परेशान भी नही कर सकता था।

एक अपार्टमेन्ट सर्च कर लिया था स्कूल के पास ही। दीपक अपनी कार से शनिवार को मेरा सामान अपार्टमेन्ट पर छोड़ गया और मै उस दिन वापस उसके साथ उसके घर चला गया। रविवार को मैं वापस अपार्टमेन्ट आ गया। पर यहाँ आकर तो ऐसा लेगा कि पता नही कहाँ आ गया हूँ। मन बिल्कूल भी नही लग रहा था।

आज फरवरी २३, २००९ को कुंतुम ओप्तिच्स की डॉ टिंग यु की क्लास अत्तेंद करने जा रहा हूँ। टाइम बहुत अजीब है क्लास का (शाम को ६:१५ से ८:४५ तक)। चलो फिर भी अगर कुछ पाना है तो कुछ खोना तो पड़ेगा ही। उसके बाद घर जाने के लिए बस पकड़नी है जो हर एक घंटे के बाद मिलती है। घर जाने में ४० मिनट्स तो लगेंगे ही अगर बस टाइम से मिल गई तो, वरना ज्यादा टाइम भी लग सकता है। उसके बाद डिनर भी बनाना है। चलो यार सब हो जायगा.............. बस वो कहावत याद आ रही है जब प्यार किया तो डरना क्या-जब प्यार किया तो डरना क्या। मेरा मतलब जब कुछ सिखना करना है तो टेंशन किस बात की।

भाई क्लास से बहार निकला तो ठण्ड के मारे नानी याद आ गई। एक तो तीन घंटे कुंतुम ओप्तिच्स पढ़ कर वैसे ही क्या दिमाग काम करेगा और फिर उपर से यह भयानक ठण्ड। दस्तानों में हाथ एसे लेग रहे थे की शायद जम गए हो और मोजे में भी पैरो का बुरा हाल था। बस अपने टाइम ९:१० से २५-३० मिनट लेट थी। कुछ ओर दुसरे छात्र भी मेरे साथ बस का इंतजार कर रहे थे, वो बोल रहे थे कि ८:१० वाली बस तो कभी लेट नही होती है टाइम से पहले आ जाती है ओर एक यह बस है कि हमेशा लेट।

चिंटू

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