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अपनी एक पहचान बनाने तथा एक बेहतर इंसान बनने के लिए संघर्षरत....

Thursday, February 22, 2007

बेबशी

आज फिर ना चाहते हुए मुलाकात हुई
जैसे कि जन्म-जन्मांत्र के बाद हुई
हमी के बाण वो हमी पर चला कर
जैसे कि सिप्पे सालार हुई

देखा अनदेखा, जाना अनजाना सा अहसास है ये
कुछ बुझी अनबुझी सी प्यास है ये
खुशी से भी बडी खुशी है ये
दुखों से भी बडा दुखों का समन्दर है ये।

चिन्टू

2 Comments:

Blogger उन्मुक्त said...

बहुत खूब, अच्ची कविता है।

8:41 am, February 23, 2007  
Blogger चिन्टू said...

धन्यवाद उन्मुक्त जी
हां अधूरी कविता है अभी, गलंतियां भी हैं बहुत सारी अभी
बहुत दिन हो गये थे लिखे हुए, इसलिए बस कल जल्दी में थोडा ही लिख पाया

8:51 am, February 23, 2007  

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